29 April 2009

दुःख के समय भगवान और धर्म क्यों याद आता है|..


गीता में कृष्ण ने कहा है की -व्यक्ति चार प्रकार से मेरी भक्ति करते है -आर्त ,जिज्ञासु, ज्ञानी और अथार्थी |
मनुष्य जब दुखी होता है तब मेरी भक्ति करता है|जब तक उसे कोई पीड़ा नही सताती,वह मुझे कभी याद नही करता|
आम्रपाली को शायद सभी हिंदू जानते होंगे, आम्रपाली अपने समय की एक प्रसिद्ध नर्तकी थी| उसने एक बार भगवान बुद्ध से कहा 'आप मेरे पास कभी नही आते',बुद्ध बोले अभी जरुरत नही है ,जिस दिन जरूरत होगी मै अवस्य आऊंगा| जब वह बूढी हो गई उसका शरीर बेकार हों गया तब बुद्ध पहुचे और बोले -'प्रिये मै आ गया',आम्रपाली ने कहा-अब समय बीत गया |अब मुझमे बचा ही क्या है? वह सौंदर्ये अब नही रहा ,आप आज क्यों आए?बुद्ध ने कहा -यही तो समय है आने का,पहले तुम्हे मेरी आवश्यकता नही थी |धर्म की आवश्यकता तुम्हे अब महसूस हो रही है,सो मै उसकी पूर्ति के लिए आया हु ,पीड़ा और दुःख के समय में भगवान को याद किया जाता है |
जब व्यक्ति महसूस करता है की उसकी उपेक्षा हो रही है ,सब उसको सता रहे है ,वह बुढा और बेकार हो गया है ,व्याकुलता बढ़ गई है, मन बेचैन है -तब उसे भगवान याद आते है,धर्म की बात याद आती है पर ज्यादा श्रेस्तकर यह होगा की व्यक्ति भगवान और धर्म की याद जिज्ञासु होकर, ज्ञानी होकर या अथार्थी होकर करे,जिज्ञासु होकर मनुष्य भगवान को तब याद करता है जब उसके मन में यह जिज्ञासा रहती है की मै सत्य का साक्चात्कार करू |मै यह जान लू की आत्मा क्या है? चैतन्य क्या है ? मोक्ष क्या है?उस जिज्ञासु अवस्था में व्यक्ति की जिज्ञासा की उपासना कर अपने को समाहित करना चाहता है|जिज्ञासा सत्य तक जाने का मार्ग है|तीसरी अवस्था ज्ञानी की है ,यह वह अवस्था है ,जिसमे ज्ञानी व्यक्ति परम की उपासना करता है भगवान और सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है| ज्ञान की आराधना सत्य की आराधना है | ज्ञानी जान जाता है संसार में सार क्या है और निसार क्या है|वह जानता है की सत्य का मार्ग कौन सा है|
चौथी स्तिथि में मनुष्य भगवान की उपासना करता है |जब व्यक्ति के मन में पदार्थ की आकांशा उभर जाती है,वह उसकी पूर्ति के लिए भगवान की उपासना करता है धर्म की आराधना करता है| धान देने वाली बात ये है की धार्मिकता का अर्थ अन्तः मन की पवित्रता से है |वह धर्म की रूचि होने से प्राप्त नही होती ,बल्कि उसकी साधना से प्राप्त होती है|संसार में साधना करने वाले बहुत कम है ,ज्यादातर धार्मिक सिद्धि कहते हैं ,वे धर्म को इसलिए नही चाहते है की उससे जीवन पवित्र बने ,वे उसे इसलिए चाहते है की उससे भोग मिले |धर्म का क्रन्तिकारी रूप तब होता है जब वह जन-मानस को भोग त्याग की ओर अग्रसर करे |
आज त्याग भोग के लिए अग्रसर हो रहा है,यह वह कीडा है,जो धर्म के रूप को विकृत बना रहा है|धर्म तो जीवन की अनिवार्य जरूरत है |जब धर्म की पूर्ति नही होगी तो ,तो जीवन में मानसिक संतुलन का अभाव तो अवस्य पैदा होगा |मानसिक संतुलन का अभाव अर्थात शान्ति का अभाव |शान्ति का अभाव अर्थात सुखो का अभाव|
पदार्थ सुख के कारण तो जरूर है ,पर उनसे सुख की अनुभूति नही होती |सुख की अनुभूति तो मन और मन से जुड़ी इंद्रियों से होती है ,वह तभी होती है जब मन संतुलित और शांत रहता है |
जहा त्याग और भोग की रेखी साथ मिलती हो,धर्म अर्थ से मिलता हो,वहा धर्म अधर्म से भी भयंकर बन जाता है,यदि हम कहते हैं की धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो हमें उसके विशुद्ध रूप का अध्यन करना होगा |आज ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जो बूढी से प्रताडित न हो और शक्ति से हीन न हो|

No comments: